राजा की रानी
“नाराज क्यों होंगी, वरन् हँसने लगीं। राजलक्ष्मी ने दीदी से कहा, अगले जन्म में हम दोनों बहिनें एक ही माँ के पेट से जन्म लेंगी। पहले मैं पैदा होऊँगी और तुम बाद में। तब दोनों बहिनें माँ के हाथ से एक ही पत्तल भर खायेंगी। उस समय यदि जात नष्ट होने की बात कहोगी तो माँ कान मल देंगी।”
सुनकर खुश होकर सोचा, अब ठीक हुआ। राजलक्ष्मी को बात करने में अभी तक कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं मिला था। पूछा, “क्या जवाब दिया?”
पद्मा ने कहा, “राजलक्ष्मी दीदी भी सुनकर हँसने लगीं। कहने लगीं, माँ क्यों दीदी, तुम तो बड़ी बहन होगी ही, स्वयं कान मल देना। छोटी की इतनी हिमाकत किसी तरह बर्दाश्त न करना।”
प्रत्युत्तर सुनकर चुप हो गया। मन ही मन प्रार्थना करता रहा कि कमललता इसके भीतरी अर्थ को न समझ सके।
जाकर देखा कि मेरी प्रार्थना मंजूर हो गयी है। कमललता ने उस बात पर कोई ध्या्न नहीं दिया, बल्कि इस अमल को न मानकर ही इस बीच दोनों में खूब मेल हो गया है।
शाम की गाड़ी से बड़े गुसाईं द्वारिकाप्रसाद आ गये और उनके साथ और भी कई बाबाजी आये। सर्वांग में छापों का परिमाण और वैचित्रय देखकर सन्देह न रहा कि ये भी अवहेलना के पात्र नहीं हैं। बड़े गुसाईं मुझे देखकर बहुत खुश हुए किन्तु उनके साथियों ने मेरी कोई परवाह न की। परवाह करनी भी न चाहिए, क्योंकि, सुना गया, उनमें से तो एक तो ख्यातिप्राप्त कीर्त्तन-कर्त्ता हैं और दूसरे मृदंग बजाने में उस्ताद।
प्रसाद पाना समाप्त होने पर मैं बाहर निकल पड़ा। वही सूखी नदी और वही वन-जंगल। चारों ओर वेणु और बेंत के कुंज हैं- शरीर बचाकर चलना मुश्किल है। आसन्न सूर्यास्त के समय किनारे पर बैठकर प्रकृति की लीला निरीक्षण करने का संकल्प किया, किन्तु बोध हुआ कि पास ही कहीं अरबी जाति के 'अंधेरे के माणिक' (फूल) खिले हैं। उनकी सड़े हुए मांस जैसी बीभत्स दुर्गन्ध ने बैठने नहीं दिया। मन ही मन सोचा कि कवियों को यह फूल बहुत पसन्द है। कोई इन फूलों को ले जाकर उन्हें उपहार क्यों नहीं देता? संध्याक होने के पूर्व ही लौट आया। जाकर देखा कि वहाँ समारोह की धूम है। ठाकुर- घर सजाया जा रहा है और आरती के बाद कीर्तन की बैठक होगी।
पद्मा ने कहा, “नये गुसाईं, कीर्तन सुनना तुम्हें अच्छा लगता है, आज मनोहरदास बाबाजी का गाना सुनने पर तुम अवाक् हो जाओगे। कैसा बढ़िया गाते हैं!”
वस्तुत: मेरे लिए वैष्णव कवियों की पदावली जैसी अन्य कोई मधुर वस्तु नहीं है। कहा, “सच, मुझे बहुत अच्छा लगता है पद्मा। बचपन में दो-चार कोस के भीतर कहीं भी कीर्तन होने की खबर सुनता था तो तत्काल दौड़ जाता था, किसी भी तरह घर में नहीं रह सकता था। समझ में आये चाहे न आये, लेकिन अन्त तक बैठा रहता था। कमललता, आज तुम नहीं गाओगी?”
कमललता ने कहा, “नहीं गुसाईं, आज नहीं। मेरी तो वैसी शिक्षा नहीं है, इसीलिए उनके सामने गाते हुए शर्म आती है। इसके अलावा उस बीमारी से गला इतना खराब हो गया है कि अभी तक ठीक नहीं हुआ।”
“पर लक्ष्मी तो तुम्हारा गाना सुनने ही आई है। उसका खयाल है कि मैंने तुम्हारे विषय में बढ़ा-चढ़ाकर कहा है।”
कमललता ने लज्जा से कहा, “बढ़ा-चढ़ाकर तो जरूर कहा होगा गुसाईं।” इसके बाद स्मित हास्य के साथ राजलक्ष्मी से कहा, “तुम कुछ खयाल न करना बहन, जो कुछ थोड़ा-बहुत आता है, वह किसी और दिन सुनाऊँगी।”
राजलक्ष्मी ने प्रसन्न होकर कहा, “अच्छा दीदी, तुम्हारी जिस दिन इच्छा हो बुला भेजना, मैं खुद आकर तुम्हारा गाना सुन जाऊँगी।” मुझसे कहा, “तुम्हें कीर्तन सुनना इतना अच्छा लगता है, यह तो तुमने कभी नहीं कहा?”
उत्तर दिया, “तुमसे क्यों कहता? गंगामाटी में बीमार पड़कर जब शय्या पर पड़ा था, तब सूखे और सूने मैदानों की ओर देखते-देखते दोपहर का वक्त कटता था, और दुर्भर संध्याा किसी तरह अकेले कटना ही न चाहती थीं...।”